Tuesday, July 22, 2014

FUN-MAZA-MASTI एक तरफा चाहत--1

FUN-MAZA-MASTI

  एक तरफा चाहत--1

आज जो कहानी मैं आपके लिए लाया हूँ वो सभी कहानियों से थोड़ा हटकर है !
  बात उस समय की है जब मैंने स्नातक कर चुका था और भवन निर्माण सम्बन्धी कार्य से जुड़ना चाहता था।
इत्तेफाक से मुझे शहर में एक इंजीनियर मिल गया जो ठेका लेकर मकान बनाता था, उसके सानिध्य में रहकर मैं काम सीखने लगा और शहर में ही एक किराये का कमरा भी ले लिया।
मेरी लगन और मेहनत को देख वो मुझे ठेकेदारी के सारे गुर सिखाने लगा !
रोज सुबह नौ बजे से देर शाम तक उनके काम देखता, सप्ताह के अंत में मिस्त्री मजदूरों की मजदूरी देने से लेकर भवन निर्माण सामग्री खरीदी और अन्य कई काम मेरे जिम्मे आ गए जो मैं बखूबी करने लगा !
मुद्दे की बात यह है कि मैं यौन क्रियाओं में कुछ ज्यादा ही रूचि लेता था, शादी अभी हुई नहीं थी, यानि पूरा छुट्टा सांड था जिस मंजिल
पर मेरा कमरा था वहीं एक परिवार और रहता था उस परिवार में नव दंपत्ति हरिराम और दीप्ति के अलावा हरिराम के पिता रहते थे जो गैस एजेंसी में काम करते थे।
हरीराम एक ऑटोपार्ट की दुकान में काम करता था ! हम लोगों के इस्तेमाल हेतु लिए एक ही स्नानघर और शौचालय था।
सुबह नौ के पहले मैं निकल जाता था और तुरंत ही बाद हरिराम और उसके पिता अपने अपने काम पर चले जाते थे !
हरिराम की पत्नी दीप्ति 19–20 साल की बेहद सुन्दर महिला थी, सांचे में ढला बदन, अधखुली आँखें ऐसी लगती जैसे उनमें मदहोशी का नशा चढ़ा हो।
पर किस्मत ने उसके साथ यह दगा किया कि उसकी आँखों में ज्योति नहीं दी। मतलब वो सुन्दर नशीली आँखे होने के बावजूद भी अंधी थी !
मुझे जब मालूम चला उसकी इस हालत पर मुझे बड़ी सहानुभूति होती थी। उसकी सुन्दरता को देखने और भोगने की लालसा फिर भी मेरे दिल से नहीं गई।
पर कहते हैं कि यदि कोई एक इंद्री बेकार हो तो छटी इन्द्रिय जागृत हो जाती है जिससे ऐसे इन्सान अपने चारों ओर के क्रियाकलापों को महसूस कर सकते हैं और अपने सभी दैनिक कार्य भी सुचारू रूप से कर लेते हैं !
सप्ताह में एक दिन बुधवार को हमारी पूरी टीम छुट्टी मानती थी तो मैं अपने गांव चला जाता था।
पर एक बार छुट्टी के दिन मैं कमरे पर ही था !
मेरे और हरिराम के कमरे और दरवाजे आमने सामने थे बीच में जो गलियारा था उसी के आखिर में स्नानालय-शौचालय बने हुए थे। मैं अक्सर अपने कमरे के दरवाजे की झिरी से दीप्ति को देखने की कोशिश करता था पर कभी ज्यादा कुछ देखने को नहीं मिला !
रोज ही मेरे जाने के बाद हरिराम और उसके पिता अपने अपने काम पर चले जाते तो केवल दीप्ति ही वहाँ रह जाती थी !
एकांत होने के कारण उसे नहाने, कपड़े बदलने में परेशानी नहीं होती होगी, न ही किसी के देखने का भय उसे रहता होगा !
उस दिन मैं देर तक सोता रहा, 10 बजे जब मेरी नींद खुली तो बाहर की आहट से लगा कि दीप्ति अकेली है, नहाने जा रही होगी !
मैंने बिना आवाज किये धीरे से दरवाजा खोला और बाथरूम का बंद दरवाजा देखा तो समझ आ गया की बाथरूम में दीप्ति नहा रही है ! मैं दिल थामकर थोड़ा सा दरवाजा खोले उसके निकलने की प्रतीक्षा करने लगा।
करीब दस मिनट बाद दीप्ति बाहर आई, उसके गोरे, चिकने, गीले बदन पर केवल एक पेटीकोट दोनों स्तनों के सहारे बंधा हुआ था ! उसने बाहर निकलकर तार पर अपने गीले कपड़े सूखने डाल दिए और खूंटी से साड़ी ब्लाउज़ और पेंटी उठा कर नहानी के पास जाकर पेटीकोट को ऊपर उठाकर अपनी पेंटी पहन ली !
पेटीकोट ऊपर उठने से उसकी दूधिया जांघों और पुष्ट गांड के उभार से ज्यादा कुछ नहीं देख पाया।

उसके बाद उसने पेटीकोट को स्तनों से खोलकर अपनी कमर में बांधना चाहा तो पेटीकोट उसके हाथों से फिसल गया परन्तु पलक झपकते ही उसने पेटीकोट को लपककर ऊपर किया और कमर पर बांध लिया दीप्ति की चौड़ी गांड और पतली कमर और उस पर स्वतंत्र होकर झूलते स्तन, जिनका आकार 32 से काम नहीं होगा, को देख उत्तेजना से मेरे शरीर में कम्पन होने लगा !
मेरी सांसें तेज हो गई और पसीने से सराबोर हो गया मैं !
शायद वो ब्रा न पहनती होगी तभी उसने सीधे ब्लाउज़ पहना और साड़ी बांधने लगी।
बीच बीच में शायद अनुमान लगा रही थी कि कोई आ तो नहीं रहा है या कोई यहाँ है तो नहीं !
जिस हिसाब से वो अनुमान लग रही थी ऐसा लग रहा था कि उसको किसी के यहाँ होने का अंदेशा जरूर हो सकता है !
फिर कमरे में जाकर हाथ पैरों में तेल लगाकर बालों को कंघी करने लगी लेकिन उसके चेहरे के भाव बता रहे थे की वो किसी की उपस्थिति से शंकित जरूर है !
सारा नजारा देखने के बाद मैंने सोचा कि उसकी शंका दूर करना जरूरी है तो मैंने दरवाजे को आवाज करते हुए खोल दिया और अपनी बाल्टी-मग्गा लेकर नहानी की ओर चला गया जैस कुछ हुआ ही न हो।
अब उसके चेहरे पर कुछ आश्चर्य के भाव दिखाई देने लगे !
नहाकर आया तो मैंने कहा- भाभी जी, बाबूजी कहाँ हैं?
भाभी बोली- वो काम पर चले गए ! परन्तु आज तुम काम पर क्यों नहीं गए? तुम्हारे दरवाजे की आहट भी सुबह से सुनाई नहीं दी ! अब मेरी समझ आया कि इसे क्या शंका थी !
मैंने कहा- आज मैंने छुट्टी ले ली है।
यह नहीं बताया कि हर बुधवार छुट्टी रहती है।
फिर कमरे में आकर कपड़े पहनने लगा। अब तक उसने अपने लिए चाय बनाई होगी तो मेरे लिए भी एक कप चाय लाकर दी।
मैंने चाय पीकर उसे कप वापस करते हुए उसकी हथेली को छू लिया मुझे तो जैसे करंट लग गया पर उसके लिए तो जैसे कुछ हुआ ही न हो।
मैंने कहा- दीप्ति भाभी, आप बेहद सुन्दर हो… काश भगवान ने आपके साथ यह नाइंसाफ़ी न की होती…
वो चाय का खाली कप लेकर चली गई।
मेरे दिल में हलचल सी मची हुई थी एक तरफ उसे पाने की लालसा दूसरी और उसके अंधेपन की सहानुभूति !
लेकिन उम्र के उस पड़ाव पर जब मैं जवान हो चुका था, वासना की ही जीत हुई।
सारा दिन अपने कमरे में काम करते हुए दीप्ति को देखने का कोई मौका नहीं छोड़ा !
वो भी कई बार दरवाजे पर खड़े होकर मेरी गतिविधियों का अनुमान लगाने की कोशिश कर रही थी !
अगले सप्ताह बुधवार की छुट्टी को मैं फिर कमरे पर ही रुक गया। सुबह जल्दी उठ गया था पर बाहर नहीं निकला, बस दरवाजे की झिरी से देखता रहा।
जब हरिराम और उसके पिता चले गए, तब दीप्ति अपने कपड़े लेकर नहानी में चली गई।
फिर मैंने अपने कमरे का दरवाजा थोड़ा सा खोलकर देखा, दीप्ति सारे कपड़े उतारकर सिर्फ पेटीकोट पहनकर नहाने लगी।
नहानी का दरवाजा आधा खुला हुआ था जिसमें से मुझे उसके उन्नत वक्ष और कमर तक उठे पेटीकोट में से उसकी नग्न टांगें, चिकनी जांघे और उनके मध्य झाटों के काले घने घुंघराले बाल दिखाई दे रहे थे जिन्हें वो रगड़ रगड़ कर धोते हुए साफ कर रही थी, सारे बदन पर पानी की बूंदें शबनम की तरह चमक रही थी।
उसके इस रूप लावण्य को देख मेरा लंड कड़क हो गया, कुछ बूंद लंडरस की निकल आई, जी चाह रहा था जाकर दबोच लूँ उसे !
मेरी योजनानुसार तभी मैंने हाथ में लिए गिलास को जमीन पर गिराकर अपनी उपस्थिति दीप्ति को दर्शा दी।
आवाज सुनते ही दीप्ति ने पेटीकोट को नीचे सरकाते हुए अपने पैरों को ढक लिया, अधखुले दरवाजे को बंद करते हुए कंपकंपारे स्वर में पूछा- कौन है?
“मैं हूँ रोनी, माफ़ करना मुझे पता नहीं था कि नहानी में आप होगी !” कहते हुए अपने कमरे की तरफ आ गया और दरवाजे को लगाने जैसा उपक्रम करते हुए थोड़ा सा दरवाजा खुला रहने दिया और फिर छुपकर देखने लगा।
पर शायद दीप्ति आश्वस्त नहीं हुई थी, उसने जल्दी से नहाकर पेटीकोट स्तनों पर बांध लिया और तौलिये से कंधों को ढककर अपने कपड़े खूंटी से उतारकर कमरे में चली गई और दरवाजा अन्दर से बंद कर लिया !
मेरा दिल बड़े जोरों से धड़क रहा था उसके जाते ही मैं नहानी में घुस गया, नहा धोकर बाहर आया और अपने कमरे में चला गया।
तभी दीप्ति ने दरवाजा खोला, वो साड़ी पहनकर तैयार हो चुकी थी, वो टटोलते हुए मेरे दरवाजे तक आई और बोली- रोनी, तुम कहाँ हो? मैंने कहा- अन्दर हूँ, आ जाओ !
फिर उसे कुर्सी पर बिठा दिया !
शरमाते हुए बोली- आज काम पर क्यों नहीं गए? और नहानी के पास क्या कर रहे थे तुम?
मैंने कहा– आज छुट्टी मना रहा हूँ, सोकर उठा था तो कुल्ला करने नहानी की ओर जा रहा था, पर तुम्हें उस हालत में देखा तो मेरे हाथ से गिलास ही छुट गया ! आज तुम्हें इस तरह देख लिया, वाकयी बनाने वाले ने तुम्हारे बदन के हर अंग को तराश कर बनाया है। मैं तो अपनी सुध बुध ही खो बैठा था तुम्हें देखकर !
“रोनी, मैं तो अंधी हूँ, पर तुम्हें मुझे इस तरह नहीं देखना चाहिए था, यह बुरी बात है ! मैं तो शर्म से पानी पानी हुई जा रही हूँ कि गैर मर्द ने मुझे इस हालत में देख लिया !”
मैंने कहा- भाभी, आप चिंता मत करो, मैं इस बात को आज यही भूल जाऊँगा और कभी आपको शिकायत का मौका नहीं दूँगा। उम्मीद है कि आप मुझे माफ़ भी कर दोगी !” कहते हुए मैंने उसकी हथेली को अपने हाथों में थाम लिया।
उसने कोई विरोध नहीं किया, फिर अपनी हथेलियों से मेरे हाथों को छूते हुए मेरी गर्दन, फिर मेरे चेहरे और बालों पर फिराते हुए मेरे सिर को थाम लिया !
मैं तो समझ रहा था जैसे वो मुझसे चुदने के लिए मुझे गर्म कर रही है।
मैं कुछ करता, उसके पहले ही वो बोली- रोनी, तुम अच्छे हो ! तुम पर मैं विश्वास कर लेती हूँ कि आज की घटना से मुझे कभी परेशानी नहीं होने दोगे !
फिर उसने अपने हाथ हटा लिए।
मेरी सांसें अनियंत्रित हो गई थी पर वो बिल्कुल सामान्य थी।
इसकी दो वजह हो सकती है, या तो वो मुझ पर यकीन करके मुझे और मेरे शरीर की बनावट को निस्वार्थ भाव से परख कर मेरे बारे में अंदाजा लगा रही थी या फिर मुझे मूक आमंत्रण दे रही थी।
इसलिए मैंने अपने ऊपर संयम रखते हुए उसे फिर कुर्सी पर बिठा दिया और बात को बदल कर माहौल को खुशनुमा बनाने में लग गया। कुछ देर बाद दीप्ति मेरी बातों से आश्वस्त होकर चली गई और मैं अपनी एकतरफा चाहत में किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाया था।
मैंने भी इंतजार करना मुनासिब समझा !













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